दिवस का अवसान होने पर
सांध्य कालीन आकाश ने अपने
झिलमिलाते केशों मैं एक मोटी खोंस लिया
मैंने उसे अपने अंतरतम मैं छिपे हुए
डोरी रहित गल हार मैं पिरो लिया
_ रबीन्द्र नाथ टैगोर
सांध्य कालीन आकाश ने अपने
झिलमिलाते केशों मैं एक मोटी खोंस लिया
मैंने उसे अपने अंतरतम मैं छिपे हुए
डोरी रहित गल हार मैं पिरो लिया
_ रबीन्द्र नाथ टैगोर
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