Wednesday, 3 September 2025

maharshi Dayanand ke pramukh vichar

 महर्षि दयानन्द स्वामी के प्रमुख विचार


हिंसक जीवों के शिकार में दोष नहीं है। इनको मारने से मनुष्यों तथा पशुओं की रक्षा होती है। जिसमें मनुष्यों की हानि हो वह पाप कर्म है । 

बूढ़े मनुष्यों को मारने में कृतघ्नता का महापाप है। वृद्ध मनुष्य अनुभव से दूसरों को लाभ पहुँचाते है ।

मद्यप मनुष्य उन्मत्त होकर दूसरों की सामन्य हानि नहीं प्राण नाश तक कर देता है अतएव महापाप पापकर्म है। मद्यों में जितनी अधिक मादकता है। उसमें उतना अधिक दोष है।

 मनुष्य का कर्तव्य ईश्वर प्राप्ति है, वेदानुकूल आचरण, मनूक्त धर्म के दश लक्षणों के पालन और अधर्म त्याग से ईश्वर प्राप्ति होती है । ईश्वर की भक्ति ,मनुष्य को दयालु और सत्य व्यवहारकर्ता होना चाहिये। 

मन्दिर बनाने से अच्छा है कान्यकुब्ज कन्याओं जो 30-30 वर्ष से क्वारी बैठी है। विवाह करा दे या कोई कला कौशल का कारखाना खोलें जिससे देश और जाति का भला होगा। 

महाभारत अदि आर्ष गं्रंथो को प्रक्षिप्त अंशो से रहित विशुद्ध संस्करण के रूप में प्रकाशित किया जााय।

 बाल विवाह और बाल सहवास का घोर विरोध करते थे उनका कहना था परिणत वयस से पहले विवाह और स्त्री सहवास करने से सन्तान कभी बलिष्ठ नहीं होगी। 

विधवा का पुर्नविवाह हो जाना चाहिये 

शारीरिक स्वास्थ्य के लिये व्यायाम आवश्यक है।

 आधुनिक जन्म के परन्तु गुरू-लक्षण हीन ब्राह्मणों के सम्बन्ध मंे स्वामी जी कहा करते थे। 

टका धर्मष्टका कर्म टका हि परमं पदम् 

यस्य गृहे टका नास्ति हा टकाटकटकायत 

सत्य का ग्रहण असत्य का परित्याग करके स्वयं सदा आनंदित होकर सबको आनन्दित किया करें ।

 जब तक मैं न्यायाचरण देखता हूँ मेल करता हूँ और अन्यायाचरण प्रकट होत है, फिर उससे मेल नहीं करता, इसमें कोई हरिश्चन्द्र हो व अन्य कोई हो। 

ऐसे षिरोमणि देष केा महाभरत के युध्द ने ऐसा धक्का दिया कि अब तक भी यह अपनी पूर्व दषा में नहीं आया क्योंकि जब भाई भाई को मारने लगे तो नाष होने में क्या संदेह है ।

   जितनी विद्या भूगोल में फैली है यह सब आर्यावर्त देष से मिस्त्रवालों, उनसे यूनान ,उनसे रूस और उनसे यूरोप देष में उनसे अमेरिका आदि देषों में फैली है ।

जो बलबान होकर निर्बलों की रक्षा करता है वही मनुष्य कहाता है और जो स्वार्थवष होकर पर हानि मात्र करता है,तब जानो वह पषुओं का भी बड़ा भाई है ।

एक चैतन्य निराकार ईश्वर की उपासना के बिना मनुष्य की मुक्ति संभव नहीं । जड़ की उपसना करने से भरतीयों की बुद्धि और जड़ हो गई है चित्त शुद्धि, इन्द्रिय निग्रह, मनःसंयोग , प्रीति ईश्वर-गुण-कीर्तन  और प्रार्थना उपासना के ये कई प्रकार हैं। 

सन्तान को पहले माता और फिर पिता शिक्षा दे। भाषा व्याकरण, धर्मशास्त्र वेद, दर्शनशास्त्र और पदार्थशास्त्र और सब की शिक्षा हो स्त्रियों के लिये इनमें से भाषा, धर्मशास्त्र, शिल्प विद्या, संगीत विद्या और वैद्यक शास्त्र आवश्यक है।

जो आत्मा और विराट आत्मा से प्रेम करता है तो अपने अंगो की भांति सबको अपनाना होगा । अपनी क्षुधा-निवृत्ति की तरह उनकी भी चिन्ता करनी पड़ेगी ।

 सच्चा परमात्मा प्रेमी किसी से घृणा नहीं करता । वह ऊँच नीच की भेदभावना को त्याग देता है । उतने ही पुरूषार्थ से दूसरो के दुःख निवारण करता है, कष्ट क्लेश काटता है, जितने से वह अपने आप करता है। ऐसे ज्ञानीजन ही वास्तव में आत्म प्रेमी कहलाने के अधिकारी 


No comments:

Post a Comment