Sunday, 4 September 2016

प्रेम रस

पाकीजा मोहब्बत के  तलबगार थे तुम
आजमा कर देखते बहुत वफादार थे तुम
हमने भी दामन मैं खुशियों को समेटना चाह
शायद इसी ख्वाहिश के गुनाहगार थे हम


उल्फत का ये दस्तूर होता है
 जिसे चाहो वाही हम से दूर होता है
दिल टूट के बिखरता है इस कदर
जैसे कांच का खिलौना  गिर कर चूर चूर होता है


कितनी जल्दी मुलाकात गुजर जाती है
बुझती नहीं प्यास और बरसात गुजर जाती है
अपनी यादों से कह डॉ इस कदर आया न करें
आती नहीं नीद और रात गुजर जाती है


दिल मैं तेरा नाम है तो किसी और के जज्बात कहाँ से लूँगा
किसी ओ चोट देकर खुद कैसे मुस्कराऊंगा
तुझे पाकर कमी  न हुई तो छोड़ दिया सबको
अब जो तुम्ही रूठ जाओगे तो मैं कहाँ जाऊंगा


इश्क करने वाले आँखों की बात परख लेते हैं
सपनों मैं मिल जाये तो मुलाकात समझ लेते हैं
रोता तो आसमान भी जमीन के लिए है
उनके आसुओं को लोग बरसात समझ लेते हैं


सबने चाह था कि उनसे हम न मिले
हमने चाह कि उन्हें गम न मिले
अगर ख़ुशी मिलाती है उन्हें हमसे जुदा होकर
तो दुआ है की उन्हें हम न मिले 

No comments:

Post a Comment